संजय, मुमताज, दारू और फिर समय की मार में न टिक सकने वाला अतीत जीवन्मृत सा! होलिका और अपराधबोध भी! बोध क्षणिक या स्थायी! सोचने के लिए कितना कम समय मिलता है, यह किसी त्रासदी से कम नहीं! न तो परम्पराओं पर सोच पा रहे हैं और न ही इंज्वाय कर पा रहे हैं! '' डासत ही गयी निसा सिरानी! '' जीवन-केलि का समय कहाँ है!